
त्रिपुरा सुंदरी मंदिर का इतिहास
Sacred History & Divine Heritage
मंदिर का प्राचीन स्वरूप
Historical Photographs of Temple Evolution

मंदिर का प्रवेश द्वार - प्रारंभिक काल

समुदायिक सभा - मंदिर परिसर

मंदिर निर्माण कार्य - सामुदायिक सहयोग

मंदिर नवीनीकरण काल

ऐतिहासिक मंदिर - समुदायिक उत्सव
ऐतिहासिक तस्वीरों का महत्व
ये दुर्लभ तस्वीरें मंदिर के विकास की गाथा कहती हैं। इनमें पंचाल समाज के सदस्यों का अटूट समर्पण, मंदिर के विभिन्न निर्माण चरण, और समुदायिक एकजुटता का प्रमाण मिलता है। प्रत्येक तस्वीर एक ऐतिहासिक क्षण को संजोए हुए है जो हमारी सांस्कृतिक विरासत का अमूल्य हिस्सा है।
माँ त्रिपुरा सुंदरी के मंदिर की संरचना
माँ त्रिपुरा सुंदरी के दिव्य स्वरूप
Divine Darshan of 18-Armed Goddess

माँ का पूर्ण दिव्य स्वरूप - 18 भुजाओं सहित

सुनहरे प्रभामंडल के साथ दिव्य रूप

दिव्य मुखारविंद का निकट दर्शन

स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित मुख

माँ के नेत्रों का दिव्य तेज
दिव्य दर्शन का महत्व
ये पावन छवियां माँ त्रिपुरा सुंदरी के दिव्य स्वरूप को दर्शाती हैं। अठारह भुजाओं वाली यह मूर्ति स्वर्ण आभूषणों, रंग-बिरंगे वस्त्रों, और ताजे फूलों की मालाओं से सुसज्जित है। माँ के दिव्य नेत्र, मुस्कान, और तेजोमय मुखारविंद भक्तों के हृदय में अपार शांति और आनंद का संचार करते हैं।
माँ त्रिपुरा सुंदरी की मूर्ति
• सिंहवाहिनी मूर्ति: अठारह भुजाओं वाली विशाल प्रतिमा
• ऊंचाई: लगभग 5 फीट ऊँची
• अस्त्र-शस्त्र: विभिन्न प्रकार के दिव्य आयुध धारण
• नौ दुर्गा: मंदिर की पीछे की दीवार पर शीतकालीन मूर्तियाँ
• श्री यंत्र: देवी के पवित्र चरणों के पास स्थापित
• प्रभामंडल: सुनहरा तेजोमय प्रभामंडल
• श्रृंगार: दैनिक फूल-माला और रंगबिरंगे वस्त्र

देवी त्रिपुरा के तीन स्वरूप
कुमारी कन्या
सुबह के समय
युवा सुंदरी
दिन के समय
पूर्ण विकसित
शाम के समय
देवी त्रिपुरा सुंदरी की तीन स्वरूपों में दर्शन होते हैं – प्रातः काल कुमारी कन्या के रूप में, दोपहर में एक युवा सुंदरी के रूप में, और सायंकाल में पूर्ण विकसित स्त्री के रूप में। इसी कारण इन्हें 'त्रिपुरा सुंदरी' कहा जाता है। माँ के इस दिव्य रूप को देखकर श्रद्धालु घंटों तक ध्यानमग्न हो जाते हैं।
देवी त्रिपुरा के तात्त्विक स्वरूप
शारीरिक (भौतिक) रूप
मूर्ति के रूप में दर्शन और पूजा-अर्चना
आध्यात्मिक रूप
ध्यान और आंतरिक साधना के माध्यम से
ज्ञानीजन माँ त्रिपुरा को दो रूपों में मानते हैं – शारीरिक (भौतिक) और आध्यात्मिक। दोनों रूपों के उपासक और भक्त विद्यमान हैं।
मंदिर की स्थापना एवं विकास का इतिहास
प्राचीन इतिहास
• विक्रम संवत 1540: शिलालेख से प्राप्त साक्ष्य
• काल: सम्राट कनिष्क के काल से भी पहले का अनुमान
• प्राचीन नगर: "गोडपोली" के तीन भाग
• सीतापुरी, शिवपुरी, विष्णुपुरी: तीन भाग
• नाम की उत्पत्ति: तीनों पुरी के बीच 'त्रिपुरा'
• शिलालेख: 'त्रियमारी' शब्द का उल्लेख
राजकीय संरक्षण
राज्यकाल में बांसवाड़ा, डूंगरपुर, गुजरात, मालवा और मारवाड़ के राजाओं द्वारा माँ त्रिपुरा सुंदरी की पूजा की जाती थी।
मंदिर का पुनर्निर्माण और विकास
विनाश और संरक्षण
मुस्लिम आक्रमणकारी जैसे मोहम्मद गजनवी या अलाउद्दीन खिलजी ने इस क्षेत्र के मंदिरों को नष्ट कर दिया था, परंतु भक्तों ने माँ की मूर्तियों की रक्षा की।
पुनर्निर्माण के चरण:
• प्राचीन काल: चांदा भाई एवं पाता भाई पंचाल (पंचाल समाज लोहार) का मार्गदर्शन
• 1157 ई.: पंचाल समाज चोखला द्वारा पहला शिखर स्थापना
• 1930 ई.: दूसरा शिखर स्थापित
• 1977 ई.: मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी की प्रेरणा से बड़े स्तर पर जीर्णोद्धार
ट्रस्ट पंजीकरण:
पंजीकरण: 23.12.1978
अधिनियम: राजस्थान सार्वजनिक ट्रस्ट अधिनियम 1959
ट्रस्ट नाम: "मंदिर श्री त्रिपुरा सुंदरी 14-चोखला पंचाल समाज"
क्षेत्राधिकार: बांसवाड़ा और डूंगरपुर जिले
मेलों और आयोजनों में योगदान
• सहस्त्र चंडी यज्ञ एवं शतचंडी यज्ञ
• 1981: 109 कुंडी महायज्ञ का आयोजन
• 8 मई 1992: पुनः शिखर स्थापना
• महायज्ञ संपन्न
हालिया विकास और आधुनिकीकरण
विकास कार्यों की सूची:
परिसर और नव निर्माण
• क्षेत्रफल: 15 बीघा भूमि में फैला परिसर
• प्रवेश द्वार: हनुमान मंदिर
• पीछे: नीलकंठ महादेव मंदिर (2004 में पुनःस्थापित)
• 5 अप्रैल 2006: स्वर्ण कीर्ति स्तंभ स्थापना
• स्थापनाकर्ता: 14-चोखला पंचाल समाज
• विधि: वैदिक विधि से उत्तर-पूर्व कोने में
निष्कर्ष
श्री त्रिपुरा सुंदरी मंदिर का इतिहास प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक फैला हुआ है। पंचाल समाज 14 चोखरा के निरंतर प्रयासों से यह मंदिर आज एक भव्य और आधुनिक धार्मिक केंद्र बन गया है। माँ त्रिपुरा सुंदरी की कृपा से यह स्थान न केवल आध्यात्मिक शांति प्रदान करता है, बल्कि सांस्कृतिक विरासत का भी संरक्षण करता है।